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भीगी पलकें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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किसने देखे
नयन छल-छल,
भीगी पलकें
आकर पोंछे कौन
सब हैं मौन,
तुम तो सबके थे
कौन तुम्हारा ?
हिम जैसे पिंघले
क्या कुछ पाया ?
सब कुछ गँवाया
क्या पछताना
दुःख क्यों दोहराना
चलते जाना
दुर्गम घाटियों में
कोई रोया कि
पंछी हुए व्याकुल
हूक चीरती
घने चीड़ वन को
तप्त मन को
एक बार फिर से
खोल हथेली
पोंछों वे गीली आँखें
विवश हुई-
हिचकी भर भर
जो यादकर रोई।