भीड़ में दुःस्वप्न / चंद्रभूषण
शाम का वक़्त है
तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो
वहां एक भीड़ जमा हो रही है
तुरत-फुरत कुछ देख लेने के लिए
पंजों पर उचकते हुए लोग
तेजी से आगे बढ़ रहे हैं
पसीजे हुए उनके चेहरे
लैंप पोस्ट की रोशनी में
पीले नजर आ रहे हैं
तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो
और तुम्हें पता है कि
जिसे देखने वे सभी आ रहे हैं
वह तुम हो
जाने क्या सोचकर
तुम नजरें झुकाती हो
और पाती हो कि
एक सूत भी तुमपर नहीं है
दोनों हाथों से खुद को ढकती हुई
बीच चौराहे तुम बैठ जाती हो
....यह धरती ऐसे मौकों पर
कभी नहीं फटती
भीड़ में तुम
कोई परिचित चेहरा ढूंढ रही हो
लेकिन ये सभी तुम्हारे परिचित हैं
तुम्हें ही देखने आए हैं
वक़्त बीत रहा है
लोग धीरे-धीरे बिखर रहे हैं
देखने को अब ज़्यादा कुछ बचा नहीं है
किसी रद्दी खिलौने-सी
तुम दुबारा खड़ी होती हो
किसी से कहीं चले जाने का
रास्ता पूछती हो
...चकित होती हो यह देखकर कि
वह अब भी कनखियों से
तुम्हें देख रहा है
इतने सब के बाद भी
कोई भय तुममें बाकी है
बाकी है कहीं गहरा यह बोध
कि यह अंत नहीं है
अंधेरा गहरा रहा है
और तुम्हें कहीं जाना है
तेज़-तेज़ तुम रास्ता पार कर रही हो
पीछे सभी तेज़-तेज़ हंस रहे हैं
क्या इस सपने का कोई अंत है-
उचटी हुई नींद में तुम मुझसे पूछती हो
जवाब कुछ नहीं सूझता
...बेवजह हंसता हूं, सो जाता हूं।