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भीड़ है अभावों की / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अपने से पहले आ बैठे ग़म
दरवाज़ा खोलूँ
डर लगता है ?
यहाँ-वहाँ अर्थ तैरते लाखों
कैसे कुछ बोलूँ
डर लगता है ?
हर सूखे होंठ पर शिकायत है
चाँदी की आँख में शरारत है
ढूँढ़े इन्सानियत नहीं मिलती
लगता है शब्द है कहावत है
बैठा तम-सर्प कुण्डली मारे
रोशनी टटोलूँ
डर लगता है ?
जगह-जगह भीड़ है अभावों की
किसको क्या तोलूँ
डर लगता है ?