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भीतर जीवन / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
पौधे अपनी टहनियों के बल खड़े हो
धरती का खनिज सोख रहे थे
प्रेम,आत्मा के बूते
मुखर हो रहा था
डोल्फिन पानी के भीतर-बाहर
आ-जा कर प्राणवायु को लपकते दोहरी हुई जा रही थी
सीधे-सीधे कोई नहीं कह पा रहा था
उसे जीवन 'भीतर जीवन जीवन' की तलाश है