भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भीषण गरमी / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
गरमी गरमी, भीषण गरमी
बढ़ती जाती हर क्षण गरमी।
कपड़े कुट्टी करते जाते,
तन पर पलभर नहीं सुहाते,
सूरज का आतंकी तेवर,
देख सभी भय से कतराते,
जाने क्या-क्या ले जाएगी,
बड़ी चतुर हैं रहजन गरमी।
नहीं सूखता कभी पसीना,
दूभर लगता ऐसे जीना,
घड़ी-घड़ी में सबको पड़ता,
दिनभर ठंढा पानी पीना,
तपे तवे पर बूँदों जैसी
हर पल करती छन-छन गरमी।
सूखे ताल-तलैया सारे,
बगुले भागे पंख पसारे,
इस जलते मौसम में सबके
ऊपर वाले ही रखवारे,
शायद शीतल मंद पवन से,
कर बैठी है अनबन गरमी।