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भुजबन्ध में रहकर मेरे / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास

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 यही तो ―
भुजबन्ध में रहकर मेरे
आँखें फेर रही हो अन्तराल में
दूर दिगन्त-पथ !

प्रियतमा,
अल्पायुषी है गुणवती मेरी,
मियाद पूरी होने दो,
ख़ुद को फिर सौंप देना
घोर पारापार में ।

महातृष्णा की जलांजलि से उठ आई थी तुम
विवसना,
दृष्टि से मैंने पोंछा तुम्हारे सर्वांग का पंक लेप,
लज्जा के रूप में ओढ़ लिया ।
झीने उत्तरीय की तरह फिर सत्ता में तुम्हारी
पहनावा बना ।
चीर कर उखाड़कर देखो :
कितने रंग कितनी कल्पनाओं से
रेशा-रेशा मुक्ति-धागा बुन रखा था !

जानती हो, आज उजड़ गया शहर,
नहीं, ढहा नहीं है मन्दिर मेरा...
जानती हो, आज लुट गया भण्डार,
नहीं, खोया तो नहीं है रत्न मेरा...
पता नहीं अभी फागुन है या श्रावण...
भँवरा है कितना करुण...
कुसुम देता है कषण...

कौन आ रहा है, तस्कर ?
नहीं, नहीं, शायद ईश्वर...

मनबन्ध में रहकर मेरे सुमर रही हो किसे ?
ऋषि के वेश में आओ, ऐसा
उस प्रिय देवता से कहो ।
उस शुभ लग्न को आने दो,
प्रियतमा,
ख़ुद को फिर सौंप देना उसके आश्लेष में ।

सुदीर्घ महानाटक के भीतर उसका गौणतम अंक हूँ मैं
क्षणिक है मेरा समय ।

ख़ुद के सम्बोधन में जिस ध्वनि को तुमने
फेंक दिया है आकाश-मुख
वही ध्वनि प्रतिध्वनि होकर लौट आने तक
तुम्हारे साथ मेरा प्रणय ।

मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास