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भुनगा / शमशाद इलाही अंसारी
Kavita Kosh से
एक भुनगा
मकडी़ के जाल में फ़ंसा
उससे मुक्त होने की
तीव्र प्रक्रिया में
निरंतर प्रयत्न करता
थक कर चूर हो जाता
कुछ क्षणों के लिये शांत
फ़िर कोई नयी
आशा की किरण जगमगाती
पुन: शक्ति संजोता
स्वतन्त्र होने का प्रयास करता
संघर्ष करता
जाल से मुक्त होने को|
लेकिन मकड़ी, जिसका अस्तित्व
उससे बहुत विशाल
सहसा प्रकट होती
अपने शक्तिशाली
पंजों में पकड़ कर
उसे विवश कर
उसका खून रूपी अर्क पीकर
विलुप्त हो जाती
किसी दूसरे भुनगे की
प्रतीक्षा में।
रचनाकाल : 30.08.1987