भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूख को कहाँ ढूंढें / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहो तो भला
उस भूख को कहाँ ढूंढूं
भूख का हलफनामा पढ़ते हुए जो
भूख के सन्दर्भों का साक्ष्य देता था

कहाँ ढूंढूं भला
प्यास की उस जमीन को
बरस जाने के बाद भी
सूखे रहना नियति थी जिसकी

बरसना भी क्या है भला
दो बूँद गिरे नहीं कि गरजते हैं परिवेश भर
वह बादल कहाँ मिलेगा
बरसता था तो गरजता नहीं था

भूख का बयान
अब इधर कहीं भी नहीं है
देह-दारू की स्वतंत्रता सबको चाहिए
रोटी न भी मिले तो हर्ज क्या है

कहो तो भला
रोटी की शक्ल किसे याद है
पर जो भूखा है उसे देह नहीं
गेह-प्राप्ति की लालसा है

इस नई सुबह में
दारू-पार्टी के साथ बदनाम हो रही है मुन्नी
होरी के मर जाने की खबर अखबार से गायब है
कहाँ से लाऊं सूरदास के जमीन गायब होने की सिनाख्त

नहीं देगा कोई
भूख के खिलाफ गवाही
सभी अस्त-व्यस्त-मस्त हैं
भूखा नहीं है कोई सब के सब खा-खाके पस्त हैं