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भूख लगती है समय पर प्यास लगती है/ जहीर कुरैशी

भूख लगती है समय पर प्यास लगती है
ज़िन्दगी भी अनवरत अभ्यास लगती है

जो रसोई में मुझे दिखती है साधारण
उत्सवों में वो ही पत्नी खास लगती है

सिर से ऊपर हंस रहे थे गुलमुहर के फूल
पांव के नीचे हमेशा घास लगती है

रोज़ करता है जो मेरी देह का शोषण
चार पैसे की उसी से आस लगती है

सख़्त चिढ़ थी मुझको जिस सामंतशाही से
आज तक, उसमें वही बूम-बास लगती है

एक पल में हो गए तिरसठ से हम छत्तीस
कल की वो घटना भी अब इतिहास लगती है

रोशनी कब मुक्त हो पाई अँधेरों से
रोशनी तम का विरोधाभास लगती है