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भूडोल / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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नूतन परिवर्तन से सब थरथरायेगा ।
भूडोल आयेगा , भूडोल आयेगा ।

विद्रोही मंथन का
धधक रहा लावा ज्वल उमड़ - घुमड़ उबला है ,
भीतर ही भीतर जो
आन्तर में घर्षण से उद्वेलित उछला है ;
उच्च अहंकारों के
शैलों के चट्टानी वक्षस को फोड़ेगा ,
महलों की नीवों के दृढ प्रस्तर तोड़ेगा ;
वसुधा को फाड़ेगा,
जग डगमगाएगा ।
भूडोल आयेगा , भूडोल आयेगा ।।

जनता की छाती पर पद रख जो अकड़े हैं ,
भवन - शिखर गर्वित शिर जितने ये खड़े है ,
टूट - टूट बिखरेंगे ;
पैरों में गिरेंगे ।
फटती धरती की दरारों के खुले मुख ,
निगल इन्हें खायेंगे ।
अत्याचारों के दृढ पाषाणी महानगर ,
नीचे धंस जायेंगे ;
शोषण ढह जाएगा ;
भूडोल आयेगा , भूडोल आयेगा ।
आयेगा निश्चय ही भूडोल आयेगा ।।

(अग्निजा ,१९७८)