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भूमिका (मेरी कविता) / जी० शंकर कुरुप

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प्रकृति की कनिष्ठा सन्तान होने के कारण विश्व की अपेक्षा मनुष्य आयु मे बहुत छोटा है । आज भी उस का जीवन शिशु-सहज कौतुको से भरा है । रूप, नाद, रस, गन्ध तथा स्पर्श के द्वारा उस की ज्ञानेन्द्रियाँ निरन्तर जागरूक हैं । ये ज्ञानेन्द्रियाँ हृदय तथा आत्मा को मोहित करनेवाला वृत्तान्त मनुष्य को सदा सुनाती आयी हैं । यह वृत्तान्त कितना भी लम्बा क्यों न हो मनुष्य की आत्मा को वह कभी बुरा नही लगता। आत्मा को तो इस बात का दुख रहता है कि नयी अनुभूतियों के वृत्तान्त लाने के लिये मनुष्य के पास नयी इन्द्रियाँ नहीं हैं । आत्मा मे इस कारण एक प्रकार की असंतृप्ति बनी रहती है ।

ज्ञानेन्द्रियो द्वारा अवगत होनेवाला विश्व मनुष्य के हृदय मे एक कौतुकपूर्ण जिज्ञासा जाग्रत करता है । जब कल्पना, चिन्तन आदि मानसिक प्रक्रियाओ द्वारा प्रकृति का प्रतिबिम्ब आत्मा पर पड़ता होता है तब मनुष्य हृदय मे जाग्रत जिज्ञासा, उस प्रतिबिम्व का विश्लेषण करने तथा उसको संचय करके एक कथावस्तु के रूप मे प्रकट करने के लिए तत्पर हो जाती है । विश्व, विज्ञान तथा कला का यह सजीव स्रोत किसी के भीतर निरन्तर बहता रहता है तो किसी मे तुषार कण की तरह प्रकट होकर विलीन हो जाता है । मेरी आत्मा के किसी उच्च स्तर पर आज भी बहनेवाले उस स्रोत ने ही कदाचित मेरे हृदय मे प्रकृति एवं मनुष्य जीवन को ध्यान से देखने तथा उन का अध्ययन व आस्वादन करने का कौतुक उत्पन्न किया हो । यह आत्मीयता का भाव ही मेरी अकिंचन तथा अपूर्ण कविता का उद्गम है ।

कुछ लोगों का मंतव्य है कि वैज्ञानिक अभिज्ञता बढ़ाने के साथ विलक्षणता कम होने लगती है तथा चिन्तनशक्ति के प्रहार से कल्पना का प्रासाद ढह जाता है । मुझे यह मान्यता ठीक नही लगती । सूर्य मण्डल के सम्वन्ध मे मनुष्य की वैज्ञानिक जानकारी बहुत बढ गयी है । क्या उस जानकारी के कारण पृथ्वी तथा ग्रह मनुष्य की दृष्टि मे और भी अधिक रम्य नही बने हैं? अपने प्रसन्न मुख पर प्रेम की ऊष्मता लिए अनन्त आकाश से कभी झुककर और कभी सीधे निर्निमेष देखने वाला नित्य प्रेमी सूर्य तथा ऋतु-परिवर्तन की विचित्रता लिये अपनी तिमिर केशराशि को पीठ पर फैलाये विविध रंगो मे सजकर विविध शब्दो के साथ स्वयं घूम घूम कर नृत्य करनेवाली पृथ्वी -- इन सब के भव्य काल्पनिक चित्र मेरे लिये आज भी दर्शनीय हैं । एक क्षुद्र ’सेल’ रमणीय सुन्दरी शकुन्तला के रूप मे विकसित हो जाता है । क्या इस वैज्ञानिक सत्य मे कल्पना की उड़ान के लिए स्थान नहीं है ? वास्तव में विज्ञान से कल्पना का क्षेत्र विस्तृत होता है तया कौतुक बढ़ता है । बचपन के दिनों की बात है । इडव मास की अंधेरी रातों में जब मैं अकेला अपने छोटे घर के बरामदे में बैठकर घने बादलों को गोद से निकल कर उसी मे छिप जानेवाली बिजली को देखता तो न जाने क्यों उछल पड़ता । आज मैं बिजली से अनभिज्ञ नही हूं । वह मेरे परिवार का ही अंग बन गयी है और इस समय मेरी मेज के पास खड़ा हो कर पतले कांच के झीने अवगुंठन के भीतर से मेरी लेखनी उसे देख-देख कर मुस्करा रही है । फिर भी विद्युत की अप्सरा के प्रति तथा उस को बांध कर रखनेवाले मनुष्य के प्रति मेरा कौतुक रत्ती भर भी कम नहीं हुआ है । अपने शरीर पर हाथ लगाने को अविवेकी कृत्य करनेवालों को भस्म कर देनेवाली बिजली क्या चरित्रगुण मे दमयन्ती से कम है ? वैज्ञानिक अभिज्ञता कवि कल्पना के पंखों को सत्य की रक्त शिरायें प्रदान करती है और उनमे उड़ान की शक्ति भर देती है ।
जारी.......