भूमिका / कविता लौट पड़ी / कैलाश गौतम
‘‘जीवन लौटा नये सिरे से कविता लौट पड़ी’’ इस पंक्ति के कवि श्री कैलाश गौतम की यह पंक्ति या इस जैसी अनेकानेक पंक्तियाँ कितनी सजीव हैं। आज के हमारे मर्माहत परिवेश में ‘कविता लौट पड़ी’ के माध्यम से हमारी स्मृतियों को इस संग्रह के ग्रामीण टटके विम्ब कैसे खॉटी गंध के साथ हेरते हैं, टेरते हैं, कि गीत जीवन बन जाता है। फूलों की सुगंध बन जाता है और हमारे हाथ ही नहीं बल्कि स्वत्व तक सुगंधित हो जाते हैं। सच कहें तो ऐसे ताल मखाने जैसे ये गीत एक साथ किसी एक संग्रह में पहले देखने को नहीं मिले। संग्रह की प्रत्येक कविता हमारे अंतर में जो हमारी ग्राम्यता है उसे कैसे-कैसे घर आँगन वाले प्रत्यांकनों में मूर्त करती हैं। यह देखते ही बनता है।
हिन्दी में यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि गत चालीस पचास वर्षों में गीतों को लेकर जो उपेक्षा का भाव प्रमुख हुआ उसने काव्य मात्र की जो हानि की वह अक्षम्य है। यह ठीक है कि उपेक्षा के कारण ही अनेक सशक्त गीतकार गीत की विधा से दूर होते चले गये। कविता की विधा वह चाहे नयी कविता का फार्म रहा हो या गीत की विधा सब उपलब्धियों से वंचित ही रहे। नईम जैसे सशक्त गीतकार या उमाकांत मालवीय के मार्मिक गीत अपनी सारी काव्यात्मक विदग्धता के बावजूद हाशिए पर ही रहे। और कैलाश गौतम जैसे प्रथम कोटि के गीतकार निर्भय होकर अपने जीवन, परिवेश, पारिवारिकता सब को अपने काव्य में मूर्त करने में लगे हैं।
मन का वृन्दावन होना
इतना आसान नहीं
वृन्दावन तो वृन्दावन है
घर दालान नहीं
कैलाश जिस सहज भाव और भाषा के साथ सारी परंपरा को शब्दों में, चित्रों में, बिम्बों में परोस देते हैं, वह कितना उदात्त है, क्या नहीं है इन गीतों में ? सारा भारतीय लोकजीवन कंधे पर गीली धोती उठाये चना चबेना चबाते हुए अपनी विश्वास की धरती पर चलते दिखता है। भले ही आज का वर्णसंकर इतिहास इन्हें कितना ही गर्हित समझे। परन्तु हमारी भारतीय संस्कृति का मूल हमारा यह लोक जीवन ही है। कैलाश गौतम जैसे वास्तविक कवि अपनी संस्कृति से एक क्षण को भी पृथक् नहीं होते। मैं इन लोकतत्वी रचनाओं के प्रति विनम्र होना चाहूँगा। कविता जब तक अपनी ग्राम्यता, संस्कृति के साथ ऐसी तन्मय नहीं होती तब तक काव्य के दूसरे प्रकार के सारे आन्दोलनों का कोई अर्थ नहीं। भले ही इन आन्दोलनों की घेरेबन्दी हो परन्तु ये अपनी परम्परा से कटे हुए आन्दोलन हैं। वर्तमान भले ही घेरेबन्दी का हो सकता है, परन्तु भविष्य तो संस्कृति और लोकपथ पर रहकर जीवन के साथ चलती, बतियाती और गाती कविताओं का ही है। जयदेव, विद्यापति, निराला के बाद ये कवितायें ऐसी रचनात्मक बयार हैं, जिनका स्वागत किया ही जाना चाहिए।
मैं भाई कैलाश गौतम के परम यश की कामना करता हूँ।
नरेश मेहता
13-11-2000
99 ए.लूकरगंज
इलाहाबाद
यह आत्मावलोकन के लिए उपयुक्त समय है
भारतीय कविता का आदिम संबोधन गीत यानी छंद हजारों साल बाद भी प्रचलन में है और निरंतर चर्चा में भी बना हुआ है। चर्चा में इसकी निन्दा भी है और प्रशंसा भी। जाहिर है कि अभिव्यक्ति की इस विधा में ऐसा कुछ विशेष है जिसके लिए यह कहा जाता है कि ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’ हालांकि आदिमकाल से लेकर आज तक लेखन में बहुतेरे बदलाव आये। सर्वाधिक बदलाव का शिकार कविता ही हुई। और यह संयोग देखिए कि कविता के जिस आदिम स्वरूप से ऊबकर जिन लोगों ने ‘नई कविता’ जैसे बदलाव और आन्दोलन की शुरूआत की थी वे सभी लोग मूलत: गीत के ही कवि थे। जैसे डॉ.जगदीश गुप्ता, लक्ष्मीकांत वर्मा, डॉ.धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, अज्ञेय, सर्वेश्वर,गिरिजा कुमार माथुर, डॉ.केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, नरेश मेहता, कैलाश वैजपेयी, नरेश सक्सेना आदि। और समीक्षकों में डॉ. नामवर सिंह और डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी का आगमन पदार्पण जो भी कह लीजिए गीत कवि के रूप में ही हुआ था।
तब गीत लिखना शायद गुनाह नहीं था। तब गीत केन्द्र में था-पत्र-पत्रिकाओं से लेकर छोटी-बड़ी गोष्ठियों एवं सम्मेलनों तक। लेकिन इसी दौरान ऐसा कुछ घटित भी हुआ जिसके चलते गीत धीरे-धीरे केन्द्र से उठाया-भगाया जाने लगा और अंतत: हाशिये का ही होकर रह गया। हाशिये पर गीत इसलिए चला गया कि सभी मौलिक एवं प्रतिष्ठित गीत कवि गीत छोड़कर नई कविता लिखने लगे और पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी अधिकतर इन्हीं हाथों में रहा, लिहाजा अच्छी तरह से रेवड़ी बांटी गई। इसके पहले की प्रतिबद्धता ऐसे संकुचित दायरे में कभी नहीं रही। क्योंकि उसकी दृष्टि और सोच में सार्थक और अनिवार्य प्रयोग तो थे लेकिन ‘एकोऽहम द्वितीयोनास्ति’ जैसी मनोवृत्ति कहीं नहीं थी। कुछ तो इस तथाकथित मनोवृत्ति के चलते और प्राणवान स्वजनों के घर से बाहर निकल जाने और एक नया आन्दोलन ‘नई कविता’ शुरू करने के कारण घर के अनुयायी गीतकारों ने गीत को ऐसा मांजना-भांजना शुरू किया कि वे कवि कम विदूषक ज्यादा लगने लगे और उनके गीत भी स्कूलों-कारखानों के ड्रेस जैसे हो गये। ऐसी स्थिति-परिस्थति से जमकर लोहा लेने की सोच और दृष्टि जिस कुल गोत्र के उत्तराधिकारी में थी या है वे अपने संकल्प के साथ अपनी रचनाधर्मिता से जुड़े हुए हैं। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि बिना गंदगी में उतरे हुए सफाई नहीं होती। गीत में आयी हुई संड़ाध-विसंगति और विद्रूपता को दूर रहकर देखनेवाले रचनाकारों की अपेक्षा वे रचनाकार कहीं ज्यादा श्रेयस्कर हैं जिन्होंने हर तरह की छींटाकशी एवं आंच को सहते हुए अपने को सक्रिय बनाये रखा और प्रकाशन से लेकर मंच तक गीत को न केवल जीवित रखा बल्कि उसके माध्यम से मानवीय मूल्यों-संवेदनाओं एवं संकल्पों को जन मानस में नये सिरे स्थापित भी किया। और जिस संड़ाध-विसंगति, विद्रूपता, बोझिलता और बासीपन से आज से पांच-छह दशक पहले गीत घिरा हुआ था, आज उसी घेरे-कठघरे में वही ‘नई कविता’ स्वत: खड़ी हो गयी है। संवेदनशील मन-प्राण उसकी चीख पुकार देख सुन भी रहा है। ऐसा तब तब हर बार होता है जब जब किसी उद्देश्य विशेष से जुड़ी मानसिकता आन्दोलन का रूप लेती है। कोई भी आन्दोलन चिरन्तन और सनातन नहीं होता। उसकी अवधि निश्चित होती है। ऐसी अवधि का बिलावजह घसीटा जाना ही समानान्तर सार्थक प्रयोग का जनक भी होता है और साक्षी भी। जब यह नाटक मंच पर खेला जा रहा था। इसको बिना आन्दोलन का स्वरूप दिये रचनाकरने वाले प्रयोगधर्मी गीत कवियों में वीरेन्द्र मिश्र, डॉ.शंभूनाथ सिंह, डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरिया, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, देवेन्द्र कुमार(बंगाली) ओम प्रभाकर, रमेश रंजक, नईम, माहेश्वर, सोम ठाकुर, श्री कृष्ण तिवारी, डॉ.उमाशंकर तिवारी, अमर नाथ श्रीवास्तव, बुद्धिनाथ मिश्र, सत्यनारायण और गुलाबसिंह के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। और सबसे मजेदार बात यह है कि इन रचनाकारों की पंक्तियाँ शैली-भाषा-कथ्य की विविधता के साथ-साथ अपनी पहचान रेखांकित करती चलती हैं बिना नाम पढ़े ही पाठक-श्रोता यह बता देते हैं कि कवि कौन है।
हां गीत के साथ संकट तब पैदा होता है जब वह भाषा-शैली, छंद-विधान जैसे बिन्दुओं पर ताजगी से दूर और बासीपन से दबा हुआ दिखाई देता है। मौलिक गीत कवियों ने इस बासीपन से पहले भी बचने का पूरा-पूरा प्रयास किया है और दो-चार प्रतिशत आज भी कर रहे हैं। जबकि ढेर सारे बन्धु तो लकीर पीटते हुए ही दिखाई दे रहे हैं। अगर छंद विधान नहीं हुआ तो पैरोडी की श्रेणी में बहुत मजे से उन्हें फिट किया जा सकता है और वे ऐसी श्रेणी के लिए डिजर्ब भी करते हैं। गीत ऐसी स्थिति में न पहुँचने पाये यह सोचना होगा उन्हें जो अपने को गीत का वारिस मानकर चल रहे हैं। क्योंकि दूसरे के भीतर झांकने से बेहतर है अपने भीतर झांकना और यह समय आत्मावलोकन के लिए उपयुक्त है। लोक भारती प्रकाशन द्वारा आज के गीत संदर्भ को पाठकों तक पहुंचाने का जो ठोस और सार्थक प्रयास किया जा रहा है, निश्चय ही यह प्रयास एक दिशा बोध साबित होगा और इसके माध्यम से बहुत बड़ी संख्या में गीत एक साथ अपनी उपस्थिति से अपने होने का आभास करायेंगे। यह आभास बहुत दूर तक और बहुत गहराई में रेखांकित होगा ऐसा मुझे विश्वास है। पिछले कुछ वर्षों के बीच नवगीत के अनेक संकलन अलग-अलग प्रकाशनों और शहरों से प्रकाशित हुए हैं। इससे प्रकाशकों और पाठकों दोनों की रूझान का भी पता चलता है। मैं ऐसे प्रयास और प्रयोग के लिए लोकभारती परिवार का विशेष रूप से आभारी हूँ। मैं आभारी हूँ अग्रज नरेश मेहताजी का जिन्होंने अपने निधन से हफ्ता दस दिन पहले ‘‘कविता लौट पड़ी’’ की पाण्डुलिपि पढ़कर अपनी असमर्थता के बावजूद दो शब्द लिखने की कृपा की। संभवत: यह वक्तव्य उनकी अंतिम लिखावट है। इस समय अग्रज रचनाकार स्व.उमाकांत मालवीय जी और प्रताप विद्यालंकार जी सचमुच बहुत याद आ रहे हैं। उनकी पावन स्मृतियों को प्रणाम करता हूँ और यह संकलन उन्हें ही समर्पित करता हूँ।