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भूमि की प्रिया / केदारनाथ अग्रवाल
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यह वज्र की बनी है
पर चाम से मढ़ी है
इंसान के हृदय की
वह रक्त की नदी है
वह जिंदगी नहीं है
जो मौत से डरी है
आँसू भरे खड़ी है
दुख दर्द से ठगी है
हर बार वह लड़ी है
जब आपदा पड़ी है
तलवार सी चली है
संघर्ष में पली है
जब सिंधु आ गया है
पथ डूबता गया है
पुल बाँधती गई है
वह लाँघती गई है
जब मेघ ने डराया
तमतोम में छिपाया
वह ज्योति सी जगी है
तम काटने लगी है
कौतुक नहीं किया है
वह भूमि की प्रिया है
रोके नहीं रुकेगी
नर्तन सृजन करेगी