भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूरा साँप / रूचि भल्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जबकि कलकत्ता कभी नहीं गई
फिर भी चली जाती हूँ बेलूर मठ
बेलूर मठ को मैंने देखा नहीं है
छुटपन में पढ़ा था किसी किताब में

जब भी लेती हूँ उसका नाम
थाम लेती हूँ बचपन की उंगली
पाती हूँ खुद को स्मोकिंग वाली गुलाबी फ़्राॅक में
जो सिली थी अम्मा ने प्रीतम सिलाई मशीन से

सात बरस की वह लड़की दौड़ते हुए
इलाहाबाद से चली आती है मेरे पास
जैसे पिता के दफ्तर से लौटने पर
खट्ट से उतर जाती थी घर की सीढ़ियाँ
जा लगती थी पिता के गले से
जैसे महीनों बाद लौटे हों पिता
सात समन्दर पार से

उम्र के चवालीसवें साल में
कस्तूरी की तरह तलाशती है अब
अपने बालों में उस कड़वे तेल की गंध को
जब सात बरस में कहती थी अम्मा से
बंटे सरीखी दो आँखें बाहर निकाल कर
"और कित्ता तेल लगाओगी अम्मा
भिगो देती हो चोटी में बंधे
फीते के मेरे लाल फूल "

लाल फूलों से याद आता है
दादी कहती थीं तेरी चोटी में दो गुलाब
तेरे गालों में दो टमाटर हैं
बात-बात पर तुनकती लड़ती चिढ़ाती
चालाकी से दादी को लूडो में हराती वह लड़की
अब रोज़ खुद हार जाती है
जीवन के साँप -सीढ़ी वाले खेल में

सौ तक जाते-जाते उसे काट लेता है हर रोज़
निन्यानबे नंबर का भूरा साँप
वह साँप से डर जाती है
डर कर छुप जाना चाहती है
इलाहाबाद वाले घर के आँगन में
जहाँ माँ पिता और दादी बैठा करते थे मंजी पर
देते थे घड़ी-घड़ी मेरे नाम की आवाज़
बहुत सालों से मुझे अब किसी ने
उस तरह से पुकारा नहीं

मैं उस प्रेम की तलाश में
इलाहाबाद के नाम को जपती हूँ
जैसे कोई अल्लाह के प्यार में फेरता है माला
इलाहाबाद को मैं उतना प्यार करती हूँ
जितना शीरीं ने किया था फ़रहाद से
कार्ल मार्क्स ने किया था अपनी जेनी को
कहते हुए -
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मदाम !
उससे भी ज्यादा जितना वेनिस के मूर ने किया था

मैं इलाहाबाद को ऐसे प्यार करती हूँ
जैसे नाज़िम हिकमत कहते हैं प्रेम का स्वाद लेते हुए
प्रेम जैसे रोटी को नमक में भिगो कर खाना हो
मैं नाज़िम हिकमत से मिलना चाहती हूँ
बतलाना चाहती हूँ
कि इस्तानबुल में जैसे गहराती है शाम
उससे भी ज्यादा साँवला रंग होता है
इलाहाबाद का प्रेम में
जब संगम पर फैलती है साँझ की चादर

तुम नहीं जानोगे नाज़िम
तुमने कभी चखा जो नहीं है
इलाहाबाद को मीठे अमरूद की तरह
मेरे दाँत के नीचे आज भी दबा हुया है
अमरूद का मीठा एक बीज
कभी लौटना नाज़िम दुनिया में
मैं दिखलाऊँगी तुम्हें
सात बरस की बच्ची का टूटा हुया वह दूध का दाँत
जिसे आज भी रखा है
मुट्ठी में संभाल कर इलाहाबाद ने