भूलना नहीं है / शशिप्रकाश
यह अन्धेरा
कालिख़ की तरह
स्मृतियों पर छा जाना चाहता है ।
यह सपनों की ज़मीन को
बंजर बना देना चाहता है ।
यह उम्मीद के अंखुवों को
कुतर देना चाहता है ।
इसलिए जागते रहना है,
स्मृतियों की स्लेट को
पोंछते रहना है ।
भूलना नहीं है
मानवीय इच्छाओं को ।
भूलना नहीं है कि
सबसे बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं और क्या हैं हमारे लिए
ग़ैरज़रूरी, जिन्हें लगातार
हमारे लिए सबसे ज़रूरी बताया जा रहा है ।
भूलना नहीं है कि
अभी भी है भूख और बदहाली,
अभी भी हैं लूट और सौदागरी और महाजनी
और जेल और फाँसी और कोड़े ।
भूलना नहीं है कि
ये सारी चीज़ें अगर हमेशा से नहीं रही हैं
तो हमेशा नहीं रहेंगी ।
भूलना नहीं है शब्दों के
वास्तविक अर्थों को
और यह कि अभी भी
कविता की ज़रूरत है
और अभी भी लड़ना उतना ही ज़रूरी है ।
हमें उस ज़मीन की निराई-गुड़ाई करनी है,
दीमकों से बचाना है
जहाँ अँकुराएँगी उम्मीदें
जहाँ सपने जागेंगे भोर होते ही,
स्मृतियाँ नई कल्पनाओं को पंख देंगी
प्रतिक्षाएँ फलीभूत होंगी
योजनाओं में और अन्धेरे की चादर फाड़कर
एकदम सामने आ खड़ी होगी
एक मुक्कमल नई दुनिया ।