दूर से जो नज़र आता है आब शायद, 
डर है निकले न कहीं ये भी सराब शायद... 
आँख खुल जाए तो औंधे मुंह पड़े मिलते हैं, 
आदतन नींद में चलते हैं मेरे ख्वाब शायद. 
कल मैंने दर बदर देखा था उसके बच्चों को, 
पी गयी क्या एक घर और ये शराब शायद. 
कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है,
चौक पर रुसवा हुई फिर कोई किताब शायद. 
लौट कर आया है वो शख्स जो दर से क़ज़ा के, 
काम उसके आ गया होगा कोई सवाब शायद 
बुतों में फूंक कर वो जाँ, लिखता होगा उन पर, 
भूल चूक लेनी देनी मुआफ है हिसाब शायद...