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भेंट / सियाराम शरण गुप्त
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करो नाथ, स्वीकार आज इस हृदय-कुसुम को;
करें और क्या भेंट राजराजेश्वर तुमको?
सौरभ की है कमी, कहाँ पर उसको पावें?
सुन्दरता है नहीं, कहाँ से वह भी लावें?
नहीं आपके योग्य भेंट यह ध्रुव निश्चय है;
पर जैसी है आज वही सम्मुख सविनय है।
इष्ट नहीं यह करो कि धारण इसे हृदय पर।
निज मंदिर में ठौर कहीं इसको दो प्रभुवर।
तब पद-छाया अकस्मात जिस दिन पावेगा,
तुच्छ कुसुम यह राज कुसुम से बढ जावेगा।
अंतहीन सुवसंत इसे विकसित कर देगा,
निरुपमेय सौन्दर्य-सुरभि इसमें भर देगा।
उस दिन गर्व समेत कह सकेंगे हम तुमसे-
क्या अब भी है अरुचि तुम्हें इस वन्य कुसुम से?