भेड़िया / कमलेश कमल
अपनी प्रयोगशाला में बैठा विधाता
जब रच रहा था मानव को
जाने क्या सूझी उसे
कि कर दिया एक प्रयोग
जोड़ दिया भेड़िए का DNA
कुछ गिनती के प्रोटोटाइप में
हाँ, की इतनी कारीगरी
रखा इतना संतुलन
कि रूप-रंग-आकार-प्रकार से
लगे वह मानव ही
तब से अब तक होते रहे हैं भेड़िए
हर शहर, हर कस्बे, हर गाँव में
हर गली, हर मोहल्ले में
जिसे ट्रेनिंग तो है-चलने की दो पैरों पर
पर फ़ितरत है टिकने की चार पायों पर
भले ही घटता-बढ़ता रहता है
आदमी और भेड़िए का अनुपात
पर घर में दिखता है वह
पूरा-का-पूरा आदमी
सोफे पर आदमी की तरह पसर
देखता है TV और पीता है चाय
कोट-पेंट, जींस-टीशर्ट या लुंगी पहन
निकलता है घर से बाहर
कि भेड़िए का डीएनए
हो जाता है एक्टिवेट
फ़िर तो वह ढूँढता है एकांत
भेड़िया होने को
या फिर ढूँढ लेता है
कोई और भेड़िया
ताकि मिलकर हो शिकार
स्कूल, मेट्रो, मंदिर या बाजार
जहाँ भी देखता है शिकार
चाहता है नोच ले बोटी-बोटी
रहती है आदिम लिप्सा
कि मारे किसी को झपट्टा
और जब कर नहीं पाता कुछ भी
तब भी बेध देना चाहता है
अपने शिकार को
लोलुप, हिंस्र आंखों से ही
यही भेड़िया शिकार कर
जब लौटता है घर को
ज़रूर पोछ लेता है अपने मुँह का लहू
ताकि सोफे पर बैठ
आराम से देख सके टीवी
और पी सके चाय।