भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भेडिय़ा ओढ़ भेड़ की खाल / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भेडिय़ा ओढ़ भेड़ की खाल।
भुलाकर खा जाता तत्काल॥
यही था मेरा जग में हाल।
कपटका ड्डैलाया जंजाल॥
बना मैं साधु, बिरागी, भक्त।
रहा मन भोगोंमें अनुरक्त॥
लगाता मैं बगुला-सा ध्यान।
मूँदता आँख, रोकता प्रान॥
दृष्टिस्न् रहती मछलीकी ओर।
सदा रहता मैं विषय-विभोर॥
प्रेमकी कहता सुन्दर बात।
जान चर्चा करता दिन-रात॥
सुनाता मैं वैराग्य महव।
लूटता अर्थ धर्म औ स्वत्व॥
बिचारे भूले, भोले जीव।
समझते मुझको संत सजीव॥
ठगीका आता कभी न अन्त।
बना रहता मैं पूरा संत॥
नीच मैं डरा नहीं क्षण एक।
मिटानी चाही प्रभुकी टेक॥
हु‌आ सब भाँति अन्त हैरान।
छुटानी कठिन हो गयी जान॥
चला तब मैं होकर अति खिन्न।
हु‌ई सब मेरी आशा छिन्न॥
नहीं मैं मुँह दिखलाने जोग।
मुझे अब भूल जायँ सब लोग॥