भैरवी / रामगोपाल 'रुद्र'
तलहटी की रेत में,
बाजरे के खेत में,
भोरे-भोरे छोहरियाँ भैरवी जगा रहीं।
तुलता अनुराग-बाण
खुलता हँसता बिहान,
खिल रहे कपोल लाल-लाल आसमान के;
और लाख-लाख बिन्दियों से ठौर-ठौर मौर
सज रहे जहाँ के;
जिनके राग-रंग में,
भोरे-भोरे छोहरियाँ रँग रहीं, रँगा रहीं।
हँस रहीं पहाड़ियाँ,
हँस रहे नयन छलक-छलक नदी की धार में
बज रहे सितार मंद्र-मंद्र तीर-तार में;
जिनकी तरल तान को
भोरे-भोरे छोहरियाँ गान में लगा रहीं।
तितलियों के नेह से
भोर की हवा में खेल, खिल रही हैं पत्तियाँ;
ओस के सनेह से
जग रही हैं आरती-सी दूबियों की बत्तियाँ;
जिनको अपने चाव से,
गीत के प्रभाव से,
भोरे-भोरे छोहरियाँ भाव में डुबा रहीं।
पंछियों की रागिनी
चहचहा रही फुदक-फुदक नदी कछार पर;
मछलियाँ सुहागिनी
भाँकती गगन लहर-लहर के पट उघारकर;
जिनको अपने बोल से,
कण्ठ के किलोल से,
भोरे-भोरे छोहरियाँ प्रेम में पगा रहीं।