तलहटी की रेत में, 
बाजरे के खेत में, 
भोरे-भोरे छोहरियाँ भैरवी जगा रहीं। 
तुलता अनुराग-बाण
खुलता हँसता बिहान, 
खिल रहे कपोल लाल-लाल आसमान के; 
और लाख-लाख बिन्दियों से ठौर-ठौर मौर
सज रहे जहाँ के; 
जिनके राग-रंग में, 
भोरे-भोरे छोहरियाँ रँग रहीं, रँगा रहीं। 
हँस रहीं पहाड़ियाँ, 
हँस रहे नयन छलक-छलक नदी की धार में
बज रहे सितार मंद्र-मंद्र तीर-तार में; 
जिनकी तरल तान को
भोरे-भोरे छोहरियाँ गान में लगा रहीं। 
तितलियों के नेह से
भोर की हवा में खेल, खिल रही हैं पत्तियाँ; 
ओस के सनेह से
जग रही हैं आरती-सी दूबियों की बत्तियाँ; 
जिनको अपने चाव से, 
गीत के प्रभाव से, 
भोरे-भोरे छोहरियाँ भाव में डुबा रहीं। 
पंछियों की रागिनी
चहचहा रही फुदक-फुदक नदी कछार पर; 
मछलियाँ सुहागिनी
भाँकती गगन लहर-लहर के पट उघारकर; 
जिनको अपने बोल से, 
कण्ठ के किलोल से, 
भोरे-भोरे छोहरियाँ प्रेम में पगा रहीं।