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भोरकोॅ चान / सूर्यनारायण शर्मा
Kavita Kosh से
भोर पहर के थकलोॅ चान,
मन उदास मुरझैलोॅ छै,
रात भर जगली जेना नवेली,
पलक झुकाय शरमैलोॅ छै !
उजरोॅ दग-दग मेघ-सेज सें,
लै अँगड़ाई आबै छै,
मन्द चाल शरमैलेॅ चेहरा,
पछियें मूँ सरकाबै छै !
मेघोॅ के रुइया में कखनू,
नील आकाशोॅ पर गड़लोॅ छै,
कखनू उजरोेॅ कमलोॅ नाखी,
पात पुरैनी पर अड़लोॅ छै ।
दूध के फेनोॅ रं उजरोॅ,
बच्चा के निरमल किलकारी,
कखनू लागे नया जुआनी,
के पानी सें रत-रत आरी ।
उतरै बेरियाँ जेना जुआनी,
आभा के माला पिन्हनें छै,
या भोरें नें नील-समुन्दर
से अमरित प्याला छिननें छै ।