भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोर की किरण / रमेश चंद्र पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है उड़ान
भीतर तो बाक़ी
अभी बहुत ही !

समय नहीं
यह माना उजले
पंखों वाले
मूल्यवान
संदर्भ, सीपियों
शंखों वाले

पर इनसे ही
निकलेंगे पथ,
और बहुत ही !

पथरीले
संस्पर्श, नए कुछ
स्वप्न बुनेंगे
रेत-घरों से
निकल भोर की
किरण चुनेंगे

रुकना कैसा ?
चलना है अब
और बहुत ही !