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भोर की किरण / रमेश चंद्र पंत
Kavita Kosh से
है उड़ान
भीतर तो बाक़ी
अभी बहुत ही !
समय नहीं
यह माना उजले
पंखों वाले
मूल्यवान
संदर्भ, सीपियों
शंखों वाले
पर इनसे ही
निकलेंगे पथ,
और बहुत ही !
पथरीले
संस्पर्श, नए कुछ
स्वप्न बुनेंगे
रेत-घरों से
निकल भोर की
किरण चुनेंगे
रुकना कैसा ?
चलना है अब
और बहुत ही !