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भोर मेरे गाँव की / सरोज परमार
Kavita Kosh से
पूरब से फुदकती किरण
धवल धार पर भटक रही
कन्दरा में कुछ ठूँठ खोज
देव-दारू पर अटक रही।
बाजों पर धर-धर पैर
ढलुआनों पर लटक रही
अंधियारे को निगल पचा
सीलन भी सटक रही।
नाले पर फिसकी इतराई
ठिठुरी मेंढों को सहलाए
घाटी में पसरी भुटियाई
तुरई लतर पर बलि जाए
चौखट पर बैठ निगोड़ी
कंकरियाँ फेंक रही है
अँगना में लेटी दई-मारी
नाती से खेल रही है।
धन्नो वर्कों से-रह रह
तख़्ती प्र चेंप रही है
मिमियाते अज शावक को
रह रह कर सेंक रही है।
के चरखे को कात रही है
चाय सुड़कते बुढ्ढे की
टाँग़ों को दाब रही है
दाड़िम पर चहकीं चिड़िया
सुग्गों ने पर फ़टकारे
टूँ टूँ टीं टीं वो मैं तू
फैला रव अगाड़े पिछवाड़े