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भोर / धनंजय वर्मा
Kavita Kosh से
अभिसार से लौटते निर्जन सन्नाटे में
पलाश के लाल दहकते अंगारों पर
पपड़ाई राख की परतें चढ़ गईं
ऊँघते सन्तरी ने दूसरे दिन का घण्टा
पूरी कर्कशता से बजा दिया
बिदाती रात के सूनेपन को चीरता
अड़फ़ड़ाता परिन्दा उड़ा
आगत के स्वागत में
लिपे-पुते ढिगाए आँगन में
रंगोली के चौक पुरे हैं
कलशा का दीप जगमगा रहा है
तोरण सजे द्वार पर
रोली लगी दीपशिखा दिपदिपा रही है
भोर हो रही है...!