भोलवा की आँख का सावन / मृदुला सिंह
भोलवा गाँव छोड़ गया है
उसकी जमीन खिसक कर जुड़ गई है
कार्पोरेटी विकास के पन्नों पर
उसका कोई नहीं यहाँ
शहर की तरफ जाती
पिकअप में बैठ गया था वह
अन्तस् की हूक गटकते
सोच रहा है
अच्छा ही हुआ छोड़ आया गांव
फूस की झोपड़ी को
धुंए में बदलते देखता भी कैसे
शहर में टीन शेड की छाँह
अब उसका घर था
दया की बची रोटियाँ लोग डाल देते कुछ
तो कुछ मुँह फेर लेते
चिथड़े में लिपटा बचपन
और करिया गया था
पर क्या फर्क पड़ना था
गरीब की किस्मत में
मान लिया जाता है कि
यही उसका जीवन है
अभी सावन आया है
भोलवा शंकर जी बनेगा
बम भोले समिति ने उसे ढूँढ लिया है
देह में भभूत सर पर चाँद
मृगछाला कमंडल में वह समाधि में लीन
मानो शिव हो
भीड़ बढ़ती झांकी के गिर्द
दोनो हाथ उठा आशीष देता वह
ईश्वर हो गया था
गले में लिपटे सांप का लिजलिजापन
मिल रहे सुख की अनुभूति में
छुप गया था
सजे ठेले में भोलवा पर
पैसों की बरसात हो रही थी
वह शहर को चमत्कार मान रहा था
कि इतना बुरा भी नहीं होता शहर
सावन बीता
झांकी के पाल उतरे
भीड़ भी खत्म हो गई
वह खुश था
शरीर अकड़ गया था तो क्या
अब मिलेंगे बहुत से रुपये
खा सकेगा पेट भर
और एक दरी एक कंबल खरीदेगा
कंक्रीट की जमीन
चुभती बहुत है कमबख्त
पर भोले का रूप उतारते ही
ठेला और समिति
सब गायब हो गए
गरीब छ्ला गया
उसके मूर्छित मंसूबे को
वेंटिलेटर भी न हासिल हुआ
मुदित हर्षित जन
जिसके पास भरा पेट और भरपूर समय है
दूर दूर तक जाकर मंदिरों में जल चढ़ा आया
पर अब सावन में भी पानी नहीं बरसता
सूख रही है धरती
भोलवा की आंखों की तरह