भौतिक विक्षोभ, गुरु, संत आदि में भक्ति / भिखारी ठाकुर
वार्तिक:
भिखारी ठाकुर के मन में सारी भौतिक संरचना के प्रति विक्षोभ हो जाता है और वे स्वयं को माँ जगाना और बाबा शिव को समर्पित करते हैं।
चौपाई
सदा 'भिखारी' रहस भिखार। बर मांगत हूँ बारम्बार॥
आगे नरपति होत भिखारी। राज त्यागी काननहीं सिधारी॥
करत अहार शाक-फल-कन्दा। जिनके नाम मनु हरिचन्दा॥
जाहि भजन लागी धुव सुजाना। सहे प्रह्लाद दुःख विधि नाना॥
जे प्रभु लागी तजी के भूपा। गये बन मनु संग सतरूपा॥
सो हरी मन मूढ पछताहीं। तनिक अलम्ब मिलन कहूँ नाहीं॥
ताते अब कछु सूझत मोहीं। राखऽ शरण पुकारूँ तोहीं॥
देवी मांगत हूँ भिछा। देहु कृपा करी के अब शिक्षा॥
जन्म-मरन गंगा के तीरा। देहे कृपा करी के रघुवीरा॥
माया बहुत दिखावत काला। कृपा करहु जसुमती के लाला॥
नाऊ बंश विदेया भारी। तामे लोभ जनावत, जारी॥
दोहा
सती सहित शिव बास कर, मम हृदय के मांहीं॥
गोदी में गजबदन लिये, दुसरी लालसा नाहीं॥
गाना
मिरचइया बाबा के चरण कमल बलिहारी।
मानपुर पटना पका बनवलन जिनकर जवाना बाजारी
बद्रीदास बलदेव बाबा के हरदम हिरदय में धारी।
देवी-बिप्र-गंगा के पुजलन कइलन यज्ञ बहु भारी॥
कहत 'भिखारी' अयोध्वाजी जाके सुरपुर प्राण पधारी॥
कवित्त
आहो रामलखन दास जी के पुकारतहूँ साधुन के. प्रिय सदा दुःख के हरैया हो।
बाँकीपुर जुजरा के मध्य स्थान माहीं पूजत बिहारी जू के मंगल करइआ हो।
गंगा जी के दरस-परस आसा रघुनाथ जी के सिद्ध-भवसागर तरइआ हो।
कहत 'भिखारी' नित हमरा पर नजर राख सीता-राम-लखन जू के हर-हरइआ हो।
वार्तिक:
श्री गुरु जी के स्थान के वर्णन-
प्रसंग:
भिखारी ठाकुर के गुरु मंत्र से संस्कारित करने वाले गुरु पर उनकी गहरी आस्था थी। श्री गुरु चरण मनाई, सुमिरी राधेश्याम। रामपुर एक ग्राम बा, जहाँ गुरु के धाम॥
चौपाई
श्री गुरु द्वारा पूरब ओर बहे सोनभद्र जोर॥
तेही के पूरब गढ़ी मनेर, तोही के पछिम आधा सेर॥
देही के उत्तर गंगा धार। संग बहे अधनासन हार॥
तेही आश्रम श्री गुरु जी बानी। मन्तर तोहरे देले भवानी॥
आई पहुँचल अवसर आज। भवसागर में परल जहाज॥
दरसन बहुत दिन बीतल। कब होई हिरदय मम सीतल॥
माया धार में परलीं स्वामी। चरण में मन बा निपटे हरामी॥
चरन कमल में दरसन दीजै। अतना दया दास पर कीजै॥
कहे 'भिखारी' बारम्बार, स्वामी पुरवहु आस हमार॥
चरन कमल हिरदय बसे, हरदम आठो जाम॥
जिमी लोभी के मन रहे, हरन पराया दाम॥
प्रसंग:
भगवान शिव पर कवि की आस्था तर्क हीन थी। संकट के समय भी वे उनको याद करते थे।
दोहा
शंकरजी कैसे करूँ। नहीं बल बुधि न गुन॥
अपने बर से राखीये। मम इजत एही जून।
श्लोक:
शान्त तुल्येन तपो नास्ति, न शान्तो सात परम सुखम्।
न तृष्णा च परो ब्याधि न च धर्म दया परम।
दोहा
वह पापी जड़ जीव है, भजन में लावे भंग॥
सदा कपट बोली बोले करे गरीब के तंग।
भाड़के
जय काली कलकत्ते वाली, बगदल दीह सुधार।
आदि भवानी आस पुराव, बेड़ा लगाव पार॥
माया धार में बानी, सुनीले मइया दानी।
आइल फागुन के सुतार, छपल राधेश्याम बहार॥
भिखारी कहे बारम्बार। हमार फोटो बा तइयार।
देखी पुस्तक मझार। कहे वाह-वाह वाह॥
दोहा
हित अनहित से हाथ जोर के मांगत भिखारी भीख।
राम नाम सुमिरण कर। तुहीं गुरु हम सीख॥