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मँहगाई की मार / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

सिर के ऊपर
कुंठा की
तलवार लटकती है

मॅंहगाई की मार
कमर को
जमकर तोड़ रही
और पेट को पीट
भूख के घुटने जोड़ रही
सुख सुविधा की गंध
न अपने पास फटकती है

नींदों में भी
विज्ञापन का
प्रेम उभरता है
लोहे को सोना
राई को
पर्वत करता है

इच्छाओं को बेबसी बुलाकर
रोज हटकती है

मेहनत के क्षण
बाजारों की
बलि चढ जाते हैं
खाली हाथ सदा
हिस्से में
आपने आते हैं
आशा बरबस पीड़ाओं के
घॅंूट गटकती है