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मंगलेश डबराल के लिए / लीलाधर मण्डलोई

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मैं जब आया दिल्ली
मंगलेश थे बाँहें पसारे
अपने संघर्ष के दिनों में
एक गर्म जगह थी भीतर
एक पनाह थी दिलासे की

लालटेन की रोशनी थी
जिसमें जनसत्ता के पन्नों पर
लिखी जा सकते थीं
लड़ाई की इबारतें
और लिखे जा सकते थे डायरी में
नए पते-ठिकाने

और नामुराद हाक़िमों को
पढ़ने-समझने के सूत्र
अनुवाद किए जा सकते थे गाँव-घर छोड़कर
आए लोगों के दुक्ख
प्रेम के ककहरों में
जीने के कुछ सबक लिखे जा सकते थे पीले पड़ते पन्नों पर

अब तुम्हारे जाने के बाद
रोशनी कुछ और कम हो गई है आँखों की
अभी बचे हैं कुछ पन्ने
और गुर्राते नए युग के शत्रुओं के ख़िलाफ़
पीले इन बचे पन्नों पर मुख़ालफ़त बनी हुई है
न होकर भी तुम्हारा होना है
हस्बमामूल