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मंगल-कलश नामंजूर / सोम ठाकुर

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फिर कुहासे की कथा कहती रही धरती
लग रहा है - फाल्गुणों के दिन अभी है दूर

खंजूरों के वन उगाए हैं नगर के मोड़
भीड़ में वीरानगी की दहशतें जी- तोड़
दृष्टिहीनता सांझ की चेतावनी पाकर
हो गया सूरज समर्पण के लिए मजबूर

टूटकर झरने लगे है हर संहिता के पेज
मिल गये आश्वासनों के पीत दस्तावेज़
चल दिया है कृष्ण - सा मन बैठकर रथ में
कौन जाने सारथी ये क्रूर है, क़ि अक्रुर

लौट आई गूँज लेकर सरगमों के भार
पर्वतों को आज दीपक राग कब स्वीकार
फ़र्क क्या पड़ता है यहाँ बहरे अंधेरे को
बाँसुरी गूँजे, भले झंकार दे संतूर

लो विदा मंत्रो -ऋचाओं! हम हुए निर्वाक
गढ़ रहा है विष- चषक खूनी समय का चाक
सिंहद्वारों की मुनादी भी बड़ी वहशी
उत्सवों को आज मंगल कलश नामंज़ूर