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मंगल-कामना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मंगल गान सुर-वधू गावे,
बहु विमुग्ध दिग्वधू दिखावे;
विलस गगन-तल में छवि पावे,
सु-मनस-वृंद सुमन-झर लावे।
विविध-विनोद-वितान विधि-सदन में तने।
समय ललित लीलामय होवे,
काल कलंक-कालिमा धोवे;
रंजन-बीज रजनिकर बोवे,
दिनमणि दिवस-मलिनता खोवे।
छाया हो छविमयी धूप छिति पर छने।
जन-मन-रंजन ऋतु बन जावे,
मधु मधु मयता-मंत्र जगावे;
मंजु वारि वारिद बरसावे,
पवन-प्रवाह सरसता पावे।
सदा सुधा में रहें सुधाकर कर सने।
सब तरुवर मीठे फल लावें,
ललित लता बेलियाँ लुभावें;
सुमन सकल फूले न समझें,
तृण मुक्ता फल मंजु दिखावें।
विपुल अलौकिक जड़ी विपिन-अवनी जने।
कंचन-प्रसू नगर हों न्यारे,
ग्राम हों प्रकृति-सुकर-सँवारे;
बनें शस्य-श्यामल थल सारे,
सुंदर सरि सर सलिल सहारे।
नगमय हों नग-निकर, रत्न दे खनि खने।
जन-जन सिध्दि-साधना जाने,
हों सब सृजन सुबोध सयाने;
बुध्दि विमुक्ति-महत्ता माने,
विबुध विबुधता-पद पहिचाने।
हितविधायिनी विविध बात जी में ठने।
पूत प्रीति-रस प्रेम पिलावे,
सुमति-सुधा मानस उमगावे;
बंधु-भाव-व्यंजन भा जावे,
मानवता मधु मुग्धा बनावे।
रुचि उपजाएँ रुचिर चरित रुचिकर चने।
उभय लोक वैभव अपनावे,
निर्भय हो भय-भूत भगावे;
मंजुल भाव-भावना भावे,
भव भावुकता-भरित कहावे।
भूरि विभूति-निकेत भरत-भूतल बने।