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मंज़िल-ए-ख़्वाब और सफ़र अब तक / शीन काफ़ निज़ाम

मंज़िल ए ख़्वाब और सफ़र अब तक
मिट गया दस्त रहगुज़र अब तक

है कोई साथ हम सफ़र अब तक
खौफ़ के साथ है ख़तर अब तक

आईने सैकड़ों मयस्सर हैं
ख़ुद को पहचानने का डर अब तक

हो चले ज़र्द सब्ज़ साए भी
बेख़बर को नहीं ख़बर अब तक

कितने दीवारो-दर से गुज़रा हूँ
ज़हन में है मगर शजर अब तक

याद कर-कर के जाने वालों को
फोड़ते हैं किवाड़ सर अब तक

जाने किस को सदायें देता है
बिन किवाड़ों का एक दर अब तक

शाख को एक बार छोड़ा था
ढूंढता हूँ घना शज़र अब तक