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मंजिलों को पा लेता काश कारवाँ अपना / रंजना वर्मा

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मंजिलों को पा लेता काश कारवाँ अपना
आज हो गया होता इश्क़ ये जवां अपना

दूर दूर तक फैला दर्द का हिमाला है
ढूंढ़ती पता गंगा अब कहाँ-कहाँ अपना

आँख में उमड़ आया अश्क़ का समन्दर है
अश्क़ छोड़ते हैं रुख़सार पर निशां अपना

साथ के बिना तेरे रास्ते अँधेरे हैं
घिर गया है तूफ़ां में आज आशियाँ अपना

सब पनाहगाहें हैं हो गयीं परायी सी
दूसरों के कब्ज़े में आज है मकाँ अपना

पंख खोल ख़्वाबों के दूर-दूर तक उड़ते
सामने अगर होता खुला आसमाँ अपना

ख़्वाब में सजाया था महल एक उल्फ़त का
बाँह में हमारी होता कोई जहाँ अपना