भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मंजिलों को पा लेता काश कारवाँ अपना / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
मंजिलों को पा लेता काश कारवाँ अपना
आज हो गया होता इश्क़ ये जवां अपना
दूर दूर तक फैला दर्द का हिमाला है
ढूंढ़ती पता गंगा अब कहाँ-कहाँ अपना
आँख में उमड़ आया अश्क़ का समन्दर है
अश्क़ छोड़ते हैं रुख़सार पर निशां अपना
साथ के बिना तेरे रास्ते अँधेरे हैं
घिर गया है तूफ़ां में आज आशियाँ अपना
सब पनाहगाहें हैं हो गयीं परायी सी
दूसरों के कब्ज़े में आज है मकाँ अपना
पंख खोल ख़्वाबों के दूर-दूर तक उड़ते
सामने अगर होता खुला आसमाँ अपना
ख़्वाब में सजाया था महल एक उल्फ़त का
बाँह में हमारी होता कोई जहाँ अपना