भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मंजिल / रेशमा हिंगोरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वफ़ा की राह पर,
निकल तो आए हैं लेकिन,
कदम-कदम पे इम्तिहान-ए-वक़्त,
बिखरे हुए!

लबों पे मुस्कुराहटों के,
हैं लिबास कहीं,
कहीं सैलाब-ए-अश्क,
राह बनाता निकले!

अजब-अजब से हैं मुक़ाम ,
अजब हैं जज़्बे,

सफ़र आसान,
भी हो जाए गर,
किसे मालूम?

कहीं होती भी हो,
मंजिल,
मगर…

किसे मालूम?

मार्च 1997