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मंथन / नीना कुमार
Kavita Kosh से
सागर में तारिणी को व्यथित रहने दो अभी
भ्रम भ्रमण में हूँ यदि भ्रमित रहने दो अभी
जो ध्येय है समुद्र मंथन और बीनना मोती के कण
तब ज्वार उठने दो, मुझे विचलित रहने दो अभी
मात्र लक्ष्य नहीं उद्देश्य, मेरी यात्रा अदभुत भी हो
मैं लहरों में हूँ समन्वित, तट-रहित रहने दो अभी
लक्ष्य के समक्ष खड़े ना जाने और कितने लक्ष्य आगे
परन्तु प्रकृति की गोद में मुझे समर्पित रहने दो अभी
यह जीवन शिक्षा, व्यवस्था, सभ्यता का हो गया ऋणी
क्षणभर स्वतंत्र कोलाहल में अव्यवस्थित रहने दो अभी
सदा अव्यक्त रहा, अज्ञात रहा, समूह का सुरक्षित अंग रहा
किन्तु निर्वासित इस विस्तृत में, अपराजित रहने दो अभी
भ्रमित रहने दो अभी, व्यथित रहने दो अभी..............