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मंदिरों की घंटियां / राकेश खंडेलवाल

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सुर के तारों से जु़ड़ न सकी भावना,
शब्द सब कंठ में छटपटाते रहे

पंथ पर था नज़र को बिछाए शिशिर
कोई भेजे निमंत्रण उसे प्यार का
प्रश्न लेकर निगाहें उठीं हर निमिष
पर न धागा जु़ड़ा कोई संचार का
चांदनी का बना हमसफ़र हर कोई
शेष सब ही को जैसे उपेक्षा मिली
उठ पुकारें, गगन से मिली थीं गले
किंतु सूनी रही इस नगर की गली
टुकड़े टुकड़े बिखरता रहा आस्मां
स्वप्न परवाज़ बिन छटपटाते रहे

क्षीण संचय हुआ होम करते हुए
गुनगुनाई नहीं आस की बांसुरी
मंत्र ध्वनियां धुंए में विलय हो गईं
भर नहीं पाई संकल्प की अंजुरी
कोई संदेस पहुंचा नहीं द्वार तक
उलझी राहें सभी को निगलती रहीं
मील का एक पत्थर बनी जिंदगी
उम्र् रफ़्तार से किंतु चलती रही
प्यास, सावन की अगवानी करती रही
मेघ आषाढ़ के घिर के आते रहे

भोर उत्तर हुई सांझ दक्षिण ढली
पर न पाईं कहीं चैन की क्यारियां
स्वप्न के बीज बोए जहां थे कभी
उग रहीं हैं वहां सिर्फ् दुश्वारियां
बिंब खोए हैं दपर्ण की गहराई में
और परछाईं नज़रें चुराने लगी
ताकते हर तरफ़ कोई दिखता नहीं
कैसी आवाज़ है जो बुलाने लगी
कोई सूरत न पहचान में आ सकी
रंग बदरंग हो झिलमिलाते रहे

हमने भेजे थे अरमान जिस द्वार पर
बंद निकला वही द्वार उम्मीद का
कोई आकर मिला ही नहीं है गले
अजनबी बन के मौसम गया ईद का
सलवटों में हथेली की खोती रहीं
भाग्य ने जो रंगी चंद रंगोलियां
हमने माणिक समझ कर बटोरा जिन्हें
वो थीं टूटी हुई कांच की गोलियां
राह को भूल वो खो न जाए कहीं
सर्य् के पथ में दीपक जलाते रहे

है सुनिश्चित कि सूरज उगे पूर्व् में
आज तक ये बताया गया था हमें
और ढलना नियति उसकी, पश्चिम में है
जिंदगी भर सिखाया गया था हमें
पर दिशाओं ने षडयंत्र ऐसे रचे
भूल कर राह सूरज कहीं खो गया
एक आवारा बादल भटकता हुआ
लाश पर दिन की, दो बूँद आ रो गया
और हम देवताओं की मरज़ी समझ
घंटियां मंदिरों की बजाते रहे