मंदिरों के चिराग़ / मासूम शायर
मैं झुका था क्यों कि तुम्हारा मूल्य बहुत अधिक था
ये आज सोचता हूँ कितना?
मंदिर में रखी चाँदी की प्रतिमा जितना
पर मैं इतना झुका कि मेरा ही मूल्य खो गया
तुम चाँदी से सोने की हो गईं
मैं मिट्टी का हो गया
मेरा न सम्मान न मूल्य बाक़ी था
दर्पण भी देखता तो नज़र झुक जाती थी
ज़िंदगी कहीं भी कोई मूल्य नहीं पाती थी
जब भी नयनो में नीर आया
किसी ने भी जल चढ़ाया
तुम सोने की थीं और निखर गईं
मैं मिट्टी का था घुल गया
तब मैं किसी को भी नहीं दिखता था
मंदिर आते जाते हर इंसान के पैरों से लिपटता था
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए
जो खो दिया वो फिर से पाने के लिए
मैंने कहा था नहीं बदलूँगा
वही बात मैं निभाता रहा
जिस के पैरों से लिपटा था
उस के साथ मंदिर आता जाता रहा
लोगों ने जब पैरों से मिट्टी उतारी
मैने वहीं दीए का रूप धर लिया
मैंने तुम्हारी किरनों को ख़ुद में भर लिया
और उजाला करने लगा
मेरे प्रकाश में हर कोई
दीवारों पे लिखी आरती पढ़ने लगा
आरती पढ़ता जब तब हर कोई सर झुकता
मैं उस झुके सर को कैसे समझता
ये हर आरती मैंने ही लिखी थी
मैंने ही बनाई थी
मैंने ही गाई थी
उन दिनों ये लिखावट कब मेरे लिए पराई थी
ये हर आरती मैंने ही लिखी थी
मैंने ही बनाई थी
आज जब मेरे उजालों में
लोगों को ये आरती पढ़ते हुए पाता हूँ
मैं समझ जाता हूँ
मैं कभी नहीं बदलूँगा कहा था मैंने
मैं आज भी वही बात निभाता हूँ
मैं कभी नहीं बदलूँगा कहा था मैंने
तुम्हें तो याद नहीं होगा
मुझे याद रहता है
मुझे याद रखना है
हर दिन आते जाते लोग
अपने स्नेह का तेल मुझ में भरते हैं
मैं अमर हो जाऊँगा मैं जानता हूँ
मंदिरों के चिराग़ कब मरते हैं
हर दिन सुबह आ के लोग मुझे
अपने तेल से ज़िंदा करते हैं
मंदिरों के चिराग़ कब मरते हैं