मंदी / लीलाधर मंडलोई
जो गुजरने से बचा हुआ मंदी का अंधेरा है
बनत में खेल रही है अंतर्राष्ट्रीय धातु
समय से दूर है उतार का मजमा
गिरावट है सोना, चांदी और सिक्कों में
घटी है तीसरी मंडी की साख कि चालें ऐसी
नाम को आवक की कमी पर भाव छूते आसमान
इससे उलट है पास-पड़ोस के तेवर
दिशावरों में जगह-जगह कमी की खबरें
नाणाभीड़ इजाफे के आसार से दूर
मालों का बढ़ता बेहाल भरावा
लेवाली में खोट से टूटता व्यापार
उठाई के अकाल में दलाल विदेशों की शरण
सस्ता उठाने की जुगत में कि दमकें बाजार
भरावा ऐसे में और टूटने को झुका
सुस्ती ऐसी कि बंद होने की कगार
आयात में उदार का रवैया ऐसा
कि देशी धंधों की फड़ों में टूटते बंद के भाव
लग्नसरा तैयारी ग्राहकी को और
दुष्काल की छाया में दम तोड़ता कोठार
ओले-बारिश से बेहाल किसान सड़कों पर
और गोलियों की बौछार में अचानक तेजी
लेवी में माफिक उठान को बेरूखी की मार
मंदी के विरूप चेहरों में हंसते सेठ
चौकन्ने कुल ऋण की बही में खुश होते
बीता जो अभी कि आने को है जो कल
मंदी का अंधेरा है उछाल में, संभार करो