भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मआल-ए-नग़्मा-ओ-मातम फ़रोख़्त होता है / साग़र सिद्दीकी
Kavita Kosh से
मआल-ए-नग़्मा-ओ-मातम फ़रोख़्त होता है
ख़ुशी के साथ यहाँ ग़म फ़रोख़्त होता है
वो जिस को आज भी कुछ लोग हुस्न कहते हैं
ब-सद-निगारिश-ए-पैहम फ़रोख़्त होता है
फ़रेब-ख़ुर्दा तबस्सुम ख़रीदने के लिए
वक़ार-ए-दीदा-ए-पुर-नम फ़रोख़्त होता है
बड़े हसीन घनेरे सियाह पर्दों में
जमाल-ए-इस्मत-ए-मर्यम फ़रोख़्त होता है
बहार-ए-वादी-ए-गंग-ओ-जमन के साथ यहाँ
वक़ार-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म फ़रोख़्त होता है
वो जिस्म-ए-मरमरीं नज़रें भी जिस को छू न सकीं
बराए-रौनक़-ए-आलिम फ़रोख़्त होता है
तिलिस्म-ख़ाना-ए-सद-रंग-ओ-बू में ऐ 'साग़र'
फ़रेब-ए-शोला-ओ-शबनम फ़रोख़्त होता है