भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मकान / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये अधूरे मकान लगभग पूरे होने वाले हैं
और जाड़े की सुबह में कितनी शांति है
थोड़े से लोग ही यहां काम कर रहे हैं
कई कमरे तो यूं ही बंद
खूबसूरती की झलक अभी बहुत ही कम
दिन ज्यूं-ज्यूं बढ़ते जाएंगे
काम भी पूरे होते जाएंगे।
खाली जगह से इतना बड़ा निर्माण
और चांद को भी रोशनी बिखेरने के लिए
एक और नई जगह
बच्चे खुश हैं दौड़-दौडक़र खेलते हुए
अभी उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं
एक अच्छे भविष्य की ओर बढ़ता हुआ मकान
जैसे एक छोटी सी चीज को
बहुत अच्छी तरह से सजाया जा रहा है
हाथ की मेंहदी तो एक छोटा सा भाग होती है दुल्हन का
फिर भी इसके दरवाजे उतने ही महत्वपूर्ण
जिन पर पौधों की शाखाएं झूलने लगी हैं
कुछ आगन्तुक गुजरते हैं पास से
इसे देखते हुए
कोई सम्मोहन उन्हें रोक लेता है
सभी थोड़ी-थोड़ी झलक लेते हैं
लम्बी हो या छोटी।
सारी थकान के बाद यह एक पड़ाव है
और कोई कैसे बढ़ता है सफलता की ओर
हर पल दिखला रहा है यह निर्माण।