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मगध-महिमा (पद्य-नाटिका) / भाग 1 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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दृश्य १

(नालन्दा का खँडहर गैरिक वसन पहने हुए कल्पना खँडहर के भग्न प्रचीरों की ओर जिज्ञासा से देखती हुई गा रही है।)

कल्पना का गीत

यह खँडहर किस स्वर्ण-अजिर का?
धूलों में सो रहा टूटकर रत्नशिखर किसके मन्दिर का?
यह खँडहर किस स्वर्ण-अजिर का?

यह किस तापस की समाधि है?
किसका यह उजड़ा उपवन है?
ईंट-ईंट हो बिखर गया यह
किस रानी का राजभवन है?

यहाँ कौन है, रुक-रुक जिसको
रवि-शशि नमन किये जाते हैं?
जलद तोड़ते हाथ और
आँसू का अर्ध्य दिये जाते हैं?

प्रकृति यहाँ गम्भीर खड़ी
किसकी सुषमा का ध्यान रही कर?
हवा यहाँ किसके वन्दन में
चलती रुक-रुक, ठहर-ठहर कर?

है कोई इस शून्य प्रान्त में
जो यह भेद मुझे समझा दे,
रजकण में जो किरण सो रही
उसका मुझको दरस दिखा दे?

(नेपथ्य से इतिहास उत्तर देता है।)

इतिहास के गीत



कल्पने! धीरे-धीरे गा!
यह टूटा प्रासाद सिद्धि का, महिमा का खँडहर है,
ज्ञानपीठ यह मानवता की तपोभूमि उर्वर है।
इस पावन गौरव-समाधि को सादर शीश झुका।
कल्पने! धीरे-धीरे गा!



मैं बूढ़ा प्रहरी उस जग का
जिसकी राह अश्रु से गीली,
मुरझा कर ही जहाँ शरण
पाती दुनिया की कली फबीली।

डूब गई जो कभी चाँदनी
वही यहाँ पर लहराती है,
उजड़े वन, सूखे समुद्र,
डूबे दिनमणि मेरी थाती हैं।

मैं चारण हूँ मृतक विश्व का,
सब इतिहास मुझे कहते हैं,
सिंहासन को छोड़ लोग
मेरे घर आते ही रहते हैं।

धूलों में जो चरण-चिह्न हैं,
पत्थर पर जो लिखी कभी है,
मुझे ज्ञात है, इस खँडहर के
कण-कण में जो छिपी व्यथा है।

ईंटों पर जिनकी लकीर,
पत्थर पर जिनकी चरण-निशानी
जिनकी धूल गमकती मह-मह,
उन फूलों की सुनो कहानी।

यहीं मगध में कहीं एक थी
उरुवेला वनभूमि सुहावन,
जिसे देख रम गया तपस्या में
गौतम सन्यासी का मन।

छह वर्षों तक घोर तपस्या की,
पर, तत्व नहीं लख पाये,
अमृत खोजने को निकले थे,
पर, तप से न उसे चख पाये।

कृश हो गई देह अनशन से,
अति दुष्कर तप करते-करते,
रही अस्थि भर शेष, तथागत,
बचे किसी विधि मरते-मरते।

बरगद के नीचे बैठे थे
सोच रहे, अब कौन राह है,
तप से शक्ति क्षीण होती है,
सम्मुख यह सागर अथाह है।

ऐसे में, ले स्वर्ण-पात्र में
पावन खीर सुजाता आई,
वट-वासी देवता - सदृश
उसको कृश गौतम पड़े दिखाईं।

अंचल से पद पोंछ, चढ़ा कर
धूप, दीप, अक्षत, फल, रोली,
सम्मुख थाल परोस, देवता से
कर जोड़ सुजाता बोली।

(पट-परिवर्तन)

(सुजाता ने अपने ग्राम के वट-देवता से यह मांगा था कि अगर मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो तो मैं तुझे खीर खिलाऊँगी। उसे पुत्र हुआ और जिस दिन वह वटवृक्ष की खीर चढ़ाने वाली थी, ठीक उसी दिन, गौतम उसी वृक्ष के नीचे आ विराजमान हुए, जिससे सुजाता ने यह समझा कि वट-देवता ही देह धरकर वृक्ष के नीचे बैठ गये हैं।)

दृश्य २

(उरुवेला की भूमि बरगद के पेड़ के नीचे कृशकाय गौतम विराजमान हैं, सामने सोने की थाल में खीर परोसी हुई है आरती जल रही है धूप का धुआँ उठ रहा है सामने सुजाता प्रार्थना कर रही है।)

सुजाता का गीत

हमारे पूरे ज्यों मन-काम।
पूर्ण करें वट-देव! तुम्हारी भी इच्छा त्यों राम।
हमारे पूरे ज्यों मन-काम।

जैसे आसमान में तारे,
फूलें त्यों संकल्प तुम्हारे,
अन्धकार में उगो, देवता! तुम शशि-सूर्य-समान।

जग को स्नेह-सलिल से सींचो,
जीव-जीव पर अमृत उलीचो,
रहे उजागर नाम तुम्हारा देश-देश, प्रति धाम।

भरी गोद मेरी यह जसे,
पूर्णकाम तुम भी हो वैसे,
मिला मुझे ज्यों तोष देव! त्यों मिले तुम्हें उपराम।
हमारे पूरे ज्यों मन-काम।

(सुजाता की यह शुभैषणा पूर्णरूप से चरितार्थ हुई, क्योंकि उसी की खीर खाने के बाद बोधि वृक्ष के नीचे गौतम ने वह गहरी समाधि लगाई जिसमें उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ। कहते हैं, सुजाता के मुख से यह आशीर्वाद सुनकर भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि जब तक तुम-सी भोली नारि मौजूद है, तब तक मुझे भी सफलता की आशा है।)

गौतम का गीत

तुम्हारे हाथों की यह खीर।
माँ! बल दे, मैं तोड़ सकूँ भव की दारुण जंजीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।

यहाँ जन्म से मरण-काल तक केवल दुख-ही-दुख है,
वह भी है निस्सार, दीखता जहाँ-तहाँ जो सुख है।
फूलों-सा दो दिन हॅंसकर झर पड़ता मनुज-शरीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।

मैं हूँ कौन? कौन तुम? हम दोनों में क्या नाता है?
खेल-खेल दो रोज, मनुज फिर चला कहाँ जाता है?
सता रहे हैं मुझे, जननि! ये प्रश्न गहन-गंभीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।

खोज रहा हूँ जिसे, अमृत की अगर मिली वह धार,
नर के साथ देवताओं का भी होगा उद्धार।
हैं जल रहे अदृश्य आग में तीनों लोक अधीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।

रवि-सा उगूँ तिमिर में, सच ही, यह मेरी अभिलाषा,
आज देखकर तुम्हें विजय की हुई और दृढ़ आशा।
आशिष दो, ला सकूँ जगत के मरु में शीतल नीर।
तुम्हारें हाथों की यह खीर।

(पट - परिवर्तन)

दृश्य ३
(प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है इतिहास नेपथ्य के भीतर से गाता है।)

इतिहास के गीत



सुधा-सर का करते सन्धान।
उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!
बैठे तरुतल यहीं लगा मुनि सहस्त्रार में ध्यान,
यहीं मिला बुद्धत्व, तथागत हुए यहीं भगवान।
सुधा-सर का करते सन्धान।



कल्पने! पूछ न कोई बात!
यह मिट्टी वह, खिला धर्म का कमल जहाँ अवदात,
फूटा जहाँ मृदुल करुणा का पहला दिव्य प्रपात।
कल्पने! पूछ न कोई बात!

कल्पना का गीत

कौन है इस गह्वर के पार?
रजकण में यह लोट रहा किस गरिमा का श्रृंगार?
कौन है इस गह्वर के पार?

धूल फूल-सी मह-मह करती,
चारों ओर सुरभि है भरती,
उपवन था वह कौन यहाँ जो हुआ सुलग कर क्षार?
कौन है इस गह्वर के पार?

जन-रव का मुकुलित कल-कल है,
तिमिर-कक्ष में कोलाहल है,
झनक रही है अन्धकार में यह किसकी तलवार?
कौन है इस गह्वर के पार?

दीपित देश-विदेश अभी भी,
विभा विमल है शेष अभी भी,
जला गया यह अमर धर्म का दीपक कौन उदार?
कौन है इस गह्वर के पार?