भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मगर बजती रही फिर भी कोई झनकार चुटकी में / पूर्णिमा वर्मन
Kavita Kosh से
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
कभी सर्दी ,कभी गर्मी, कभी बौछार चुटकी में
ख़ुदाया कौन-से बाटों से मुझको तौलता है तू
कभी तोला, कभी माशा, कभी संसार चुटकी में
कभी ऊपर ,कभी नीचे ,कभी गोते लगाता-सा
अजब बाज़ार के हालात हैं लाचार चुटकी में
ख़बर इतनी न थी संगीन अपने होश उड़ जाते
लगाई आग ठंडा हो गया अख़बार चुटकी में
न चूड़ी है, न कंगन है, न पायल है ,न हैं घुँघरू
मगर बजती रही फिर भी कोई झनकार चुटकी में