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मचान / कुमार वीरेन्द्र

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अब बाबा के कन्धे पर नहीं
सँगे टुघुरते चल सकता था

साथ खड़ा था
बान्ध पर, उस तरफ़ बाढ़ का घटता
पानी, हहराते नदी में समा रहा था; इस तरफ़ मकई, मसुरिया, धान का
अवशेष लिए खेत, साफ़-साफ़ दिखने लगे थे; दहने से बच गया मचान
पाँकी में धँसा, यही कह रहा था, 'बान्ध पर ही रहोगे
आओ, धँसा हूँ, बाक़ी अबहीं खड़ा
हूँ, हो', देखा दूर तक
कोई नहीं

पाँत-दर-पाँत आसमान में बगुले उड़े जा रहे
जहाँ हैं, वहीं से, उन्हें उड़ते निहार रहे बादर

दुअँठियवा आम का पेड़ जो
कोइलियों का अड्डा, आज उस पर कवन-कवन तो
पँछी भी आ बैठे हैं, बोल-डोल रहे, सुखा रहे पँख कि तोल रहे; बस कोइलियाँ नाहीं बोल रहीं
भोरे-भोरे ख़ूबे बोलती थीं, कहाँ गईं; बग़ल में जो खन्ता की नारी, जिसमें उगे बइर के पेड़ों की
झुकी शाखों से साड़ी-धोती, सलवार-दुपट्टा, किसी का पैण्ट-कुरता, लेदरा
चद्दर जाने क्या-क्या, फँसे फड़फड़ा रहे, घटती बाढ़ में
बधार कितना ख़ाली दिख रहा; मानुस
पाखी-आँखें भी उतरते
धँस जाएँ

बाबा खैनी बनाने लगे, धेयान बोरिंग तरफ़ गया
छत प कबसे दुगो साँप खेल रहे थे, देखने लगा

माई होती, कहती
'अरे, जुड़वाँ साँप नाहीं देखते, बेटा; अगर
देख लिए, कहते नाहीं, बहुते असुभ', फिर आजी कहती, 'आछा ई बताओ, कवन पोथरी
में लिखल है, नाहीं देखते, बउराहिन कहीं की', देख रहा था, साँपों को खेलते, पहली बार
देख रहा था, तबहुँ हुसल न पा रहा था, बेरी-बेरी मचान तरफ़ ही नज़र
चली जाती, जिस पर भोरहरिए बइठ चिरइयों-सुग्गों को
कटोरा बजा, 'अहो हो, धा हो-धा हो' करते
भगाता, उड़ते देख गगन में
बजाता ताली

लेकिन अबहीं तो, छूँछ खेत में छूँछ मचान
छूँछ मचान प का, जाने छूँछ प कवन छूँछ

कि पगड़ी बान्धते
खोंसते पछुआ, उचर पड़े बाबा, 'अरे मचान
देख का सोच रहे हो रे मरदे, आओ, उहँवा चलो,' और बान्ध से उतर मटिकटान में जहँवा
तनि भर पानी, घँघोरने लगे, छपछ्पाते अइसे जइसे बचवन में बचवा, फेंक रहे थे मछरी
तीरे मैं गमछी की झोरी में रख रहा था, कबहुँ जब हाथ से फिसल
जाती, 'अरे मरदे, ई का, धरो-धरो' कहते, ठहाका
लगाने लगते; और ऐसा, बाबा जब
जब ठहाका लगाते
काहे तो

मचान ओर मुँह कर रोने को मन
करता, ख़ूब रोने को मन करता !