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मजदूर / महेंद्र 'मधुप'

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एक दिन भोरे उठ के,
निकलली करेला मटरगस्ती,
गाँओं के हम अइसन रहबइआ देखली,
त। हमरो ठप हो गेल मस्ती।
सरक के किनारे हम देखली
एगो कुत्ता मखमल के गद्दी पर
सूतल फोंफ कटइत रहे।
ई देख के मन बहुत खिसिआएल
ई तकदीर के खेल देख के
मन बहुत गोस्साएल।
ओही जगह तनी दूर आगे देखली,
एगो मजदूर
बिना ओढ़ना-बिछौना आ दाना-पानी के
जारा के रात में ठिठुर के
मरल परल रहे।
तकदीर के खेल कइसन हए
केउ खाइते-खाइते मरइअ,
केउ रोटी के एगो टुक्की ला
भूखे परान गमबइअ।