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मजबूरी / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
Kavita Kosh से
मेरा मन और मैं
उड़ जाना चाहते हैं
दूर खुले गगन में,
उड़ते पंछियों की तरह।
मिल जाना चाहते हैं वैसे
जैसे नदिया मिलती है
किसी सागर से।
पर जब भी सोचता हूँ
निकलना बाहर
सांसारिक पिंजरे से
हो जाता हूँ बेबस
पैरों में पड़ी
रिश्तों की जंजीरों से।
सोचता हूँ तोड़ना
वो सारी जंजीरें,
वो सारे बंधन
जो रोके हैं मुझे
विचरने को स्वच्छन्द आकाश में,
मिलने को उमड़ कर
किसी सागर से।
पर हो जाता हूँ नाकाम,
आ जाता है हर बार
आँखों के सामने,
खुद का
बूढ़े बाप की लाठी होना,
माँ की आँखों की ज्योति होना,
होना छोटों का सहारा,
फिर
लौट आता हूँ
इसी पिंजरे में
और देखने लगता हूँ
स्वप्न फिर से
आकाश में उड़ने का,
सागर से मिलने का।