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मजाक चांद का / कुमार मुकुल

नामुराद प्रेमियों पर

बड़ा गुस्सा आता है चांद को

कि निकलते हैं वो चांद देखने के बहाने

पर आपस में ही तल्लीन हो जाते हैं ऐसे

कि याद ही नहीं रहता

कि ऊपर चांद भी है

ऐसे में चांद भी बाज नहीं आता है

पहले तो वह

मैदान में चरते घोड़ों को गुदगुदाता है

और वे चरना छोड़

लगते हैं हिन-हिनाने

और इससे भी बात नहीं बनती

तो उकसा देता है कुत्तों को


अब उठते हैं प्रेमी

और चांद ख़ुश होता है

कि चलो ख़याल तो आया

पर वे फिर आपस में गुम हो जाते हैं

चांद घास के नीचे तब

छुपा देता है पत्थर

पर गिरते-संभलते

बढ़ते ही जाते हैं वे

तब पीछे-पीछे

दरवाज़े तक

आता है चांद

और निराश हो

अपनी छाया वापिस ले लेता है

और बाहर खड़ा

इंतज़ार करता थक जाता है

तो झाँकता है खिड़की से

और पाता है

आपस में लिपटे वे सो रहे हैं

और वह भी वहीं

बिछ जाता है।