भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मती ऊपाड़ो बीज / शिवराज भारतीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बोझ ना समझो बापजी, बगसो ठंडी छांव
म्हैं भी करस्यूं जगत में, च्यारूं कुंटा नांव

म्हैं लिछमी सुरसत सती, म्हैं दुरगा रो रूप
म्हैं चंडी म्हैं काळका, म्हारा रूप अनुप

म्हैं चित्तौड़ अर मेड़तै, म्है झांसी रो मान
भारत रो कण-कण करै, म्हारी कुख बखाण

म्हैं भी कल्पना चावळा, पी.टी. ऊषा दांण
उड‘र पकडूं गिगन नै, घणो दिरास्यूं मान

म्हासूं धाप‘र धापली, दीन्यो नांव टिकाय
कोई भाई धापलो, बण्यो आज तक नांय

मती उपाड़ो बीज थे, कळपै म्हारो जीव
सूनो रैसी आंगणो, बिना लडायां धीव

इण समाज री कैबतां, कररी म्हारी कूंत
‘ जे लालर नी जामती, अळसी जांतो ’

बै मांया डाकण बणी, बाप कसाई जाण
गरभ मांय नुचवाय द्यै बाळकड़ी रा प्राण।