भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मत कहो / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज भय की बात मुझसे मत कहो,

आज बहकी बात मुझसे मत कहो !

प्राण में तूफ़ान-से अरमान हैं,

कंठ में नव-मुक्ति के नव-गान हैं !

ज्वार तन में स्वस्थ यौवन का बहा,

नष्ट हों बंधन, सबल उर ने कहा !

है तरुण की साधना, गतिरोध क्या ?

है तरुण की चेतना, अवरोध क्या ?

द्वंद्व भीषण, है चुनौती सामने,

बीज भावी क्रान्ति बोती सामने !

बद्ध प्रतिपग पर समस्त समाज है;

आग में तपना सभी को आज है !

आज जन-जन को शिथिलता छोड़ना,

है नहीं कर्तव्य से मुख मोड़ना !

इस लगन की अग्नि से जर्जर जले

रक्त की प्रति बूँद की सौगन्ध ले

प्राण का उत्सर्ग करना है तुम्हें,

विश्व भर में प्यार भरना है तुम्हें !

धर्म मानव का बसाना है तुम्हें,

कर्म जीवन का दिखाना है तुम्हें !

मर्म प्राणों का बताना है तुम्हें,

ज्योति से निज, तम मिटाना है तुम्हें !

विश्व नव-संस्कृति प्रगति पर बढ़ चला,

भ्रष्ट जीवन मिट समय के संग गला !

काल की गति, भाग्य का दर्शन मरण,

आज हैं प्रत्येक स्वर के नव-चरण !

जीर्णता पर हँस रही है नव्यता,

खिल रहीं कलियाँ भ्रमर को मधु बता !

ध्वंस के अंतिम विजन-पथ पर लहर,

सृष्टि के आरम्भ के जाग्रत-प्रहर !

जागरण है, जागते ही तुम रहो,

नींद में खोये हुए अब मत बहो !

आज भय की बात मुझसे मत कहो,

आज बहकी बात मुझसे मत कहो !

1950