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मत छोड़ना लिखना तुम / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

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कवि! सुना है!
अपनी ही जड़ों से
उखड़ने लगा है आदमी,
मैली हो गई हैं नदियाँ,
हम काट रहे हैं जंगल,
खिसकने लगी हैं पहाड़ की परतें
और गमले में आ गया है वृक्ष!
तेज, बहुत तेज
हो गई है सूरज की तपिश!
और बच्चों के पालने तक पहुँचने को
तरसने लगा है चाँद!
उलझने लगी हैं
रात की काली ज़ुल्फें,
थमने लगी हैं पैदा होना
जुगनूओं की नई नस्लें,
गिरने लगा है जल का स्तर,
दूषित हो गई है हवा
और विलुप्त-सी हो गई है
बसंत में कोयल की कूक!
व्यस्त हो गये हैं पिता
और वंचित होने लगा है
माँ के स्तन से वात्सल्य,
शायद संवेदनशून्य होने लगा है मानव!
पर हे कवि!
मत छोड़ना लिखना तुम!
गर सूखने लगे स्याही
बूंद दर बूंद जिस्म के रक्त को
लेखनी में भर लेना
और लिखना कोई कोमल गीत!
क्योंकि जब कारखाने में बनने लगेंगे
मानव के कलपुर्ज़े
और आदमी हो जाएगा मशीन,
तब याद दिलानी होगी उसे
मानवीय संवेदनाओं का इतिहास।
उस वक्त, हे कवि!
तेरे लिखे ये कोमल गीत
बहुत काम आएँगे।