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मत बनो कठोर / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
इतने आकर्षण की छाया
जल-से अंतर पर मत डालो,
मैं पैरों पड़ता हूँ, अपनी
रूप-प्रभा को दूर हटालो,
- अथवा युग नयनों में भर लो
- फेंक रेशमी किरनों की डोर !
और न मेरे मन की धरती
पर सुख-स्नेह-सुधा बरसाओ,
यह ठीक नहीं, वश में करके
प्राणों को ऐसे तरसाओ,
- छू लेने भर दो, कुसुमों से
- अंकित जगमग आँचल का छोर !
इस सुषमा की बरखा में तो
पथ भूल रहा है भीगा मन,
तुम उत्तरदायी, यदि सीमा
तोड़े यह उमड़ा नद-यौवन,
- आ जाओ ना कुछ और निकट
- यों इतनी तो मत बनो कठोर !