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मत विकल हो / सुरंगमा यादव

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मत विकल हो प्राण मेरे!
नयनशायी रह गये जो स्वप्न तेरे
तू किसी के स्वप्न को अवलम्ब दे दे
विरस मन को रंग मिश्रित बिंब दे दे
क्यों उदासी जग अकारथ कह रही है
 भूलता क्यों सब पदारथ तो यहीं हैं
संकुचित मन संकुचन ही पा सकेगा
निठुर मन क्या प्रेम अर्जित कर सकेगा
दुःख कहीं आगे कहीं पीछे खड़ा है
निज वेदना को क्यों माना बड़ा है
क्यों भला मन अपर मन को बेधता है
क्यों खिले जीवन-सुमन यूँ रौंदता है
बेंधना है, तो कलुष को बेध दे तू
द्वेष रण से दृष्टि अपनी फेर ले तू
है बसा करुणेश तो सबके हृदय में
किन्तु करुणा रह गयी है कहाँ मन में!
देह वीणा साँस तारों से सजी है
बिन गँवाए पल अभी संकल्प ले ले
लक्ष्य तेरा जो, उसे संधान कर ले।